Saturday, March 28, 2009

चुपचाप हैं और क्‍या

सभागार की
ये पुरानी दरी
गालिब के
किसी शेर के साथ
बुनी गई होगी -
कम से कम
दो शताब्दी पहले।
’दर‘ का ’दर्द‘ से
होगा जरूर
कोई तो रिश्ता
’दायम पडा हुआ
तेरे दर पर
नहीं हूँ मैं -
कह नहीं सकती
बेचारी दरी।
जूते-चप्पल झेलकर भी
हरदम सजदे में बिछी
धूल फाँकती सदियों की
मसक गई है ये जरा-सी
जब कभी खिंच जाती है
सभा लम्बी
राकस की टीक की तरह
धीरे से भरती है
शिष्ट दरी
नन्हीं-मुन्नी एक
अचकचाती-सी
उबासी
पुराने अदब का
इतना लिहाज है उसे,
खाँसती भी है तो धीरे से!
किरकिराती जीभ से रखती है
होंठ ये
लगातार तर
किसी पुराने चश्मे के काँच-सी-धुँधली,
किसी गंदुमी शाम-सी धूसर
सभागार की ये पुरानी दरी
बुनी गई होगी
गालिब के किसी शेर की तरह
कम-से-काम
दो शताब्दी पहले।
नई-नई माँओं को
जब पढने होते हैं
सेमिनार में पर्चे
पीली सी साटन की फालिया पर
छोड जाती हैं वे बच्चे
सभागार की इस
दरी दादी के भरोसे।

2 comments:

इरशाद अली said...

भाई सागर साहब आपका स्वागत है हिन्दी ब्लाॅगिंग में। आपका ब्लाॅग तो विविधताओं से भरा हुआ है दोस्त। नाम भी बड़ा अच्छा रखा हैं। दोस्त ब्लागवाणी और नारद में पंजीकरण करवाओं। ब्लाॅग हिट वहीं से मिलती हैं। बाकी सम्र्पक में रहिये। आप भी मेरठ से बावस्ता है ये और भी खूशी देता हैं।

shiv sagar said...

Irshaad Bhaai salaam, baad khairiyat ke haal ye hai ki aap li aamad ko kaafi waqat biit gaya. koi naya comment naihain deya aapne. Aapke mobile noumber ki darqaar hai PlZ lihk kar bhez deain. aapka sagar.