जुल्फों से आ रही थी महक जाफरान की,
मत पूछ क्या घड़ी थी मेरे इम्तहान की।
आबरू से जा मिली है वो कागज की इक लकीर,
या खिंच गई है दोस्तों डोरी कमान की।
मेहनत खुलूस सादगी सच्चाई बांकापन,
इन जेवरों से सजती है लडक़ी किसान की।
बरसात के दिनों में कभी गांव जाके देख,
खुशबू अजीब होती है कच्चे मकान की।
महलों के साथ-साथ हो फुटपाथ का भी ख्याल,
तस्वीर एसे खींचीए हिंदोस्तान की।
मेरी गजल में अपनी ही धरती का हुस्न है,
क्यों बात करते हो उस आसमान की।
गुलाम हैं वे
गुलाम हैं वे जो डरते हैं
कमजोरों पतितों की खातिर
आवाज ऊंची करने से।
दास हैं वे जो नहीं चुनेंगे
घृणा, अपयश और निंदा के बीच
सही रास्ता लडऩे का
खामोशियों में सिमटने के बजाय
जरूरत है
सच्चाई के साथ सोचने की शुरुआत हो
गुलाम हैं वे जो नहीं करेंगे साहस
सबके बीच
सच का साथ देने का...
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3 comments:
पसंद आई रचना और खासतौर से ये पंक्तियां-
बरसात के दिनों में कभी गांव जाकर देख,
खुशबू अजीब होती है कच्चे मकान की।
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! आपने बहुत ही सुंदर लिखा है ! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!
Good one shiv Bhai! Soch Acchi hai
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